लेखनी कहानी -16-Jan-2023 8)स्कूल की मस्तियाँ और फिर जुदा होने का दुख ( स्कूल - कॉलेज के सुनहरे दिन
शीर्षक =स्कूल की मस्तियाँ और फिर जुदा होने का दुख
राजकीय हाई स्कूल, ये स्कूल नही एक यादों का पिटारा है, जिसमे इतनी यादें समाई हुयी है, कि लिखते लिखते सुबह से शाम हो जाए लेकिन उन पांच सालों का वर्णन नही कर सकते
वो स्कूल नही एक तरह का घर ही था, बस फर्क इतना था कि घर में घर के कपड़े पहनते थे और स्कूल में बस यूनिफार्म पहन कर जाते थे और कांधे पर बेग होता था
उस बैग में जितनी किताबें थी, उतने तो उसमे मास्टर भी नही थे, और गणित के मास्टर के तो कभी दर्शन ही नही हुए, जिसका मन करता आ कर पढ़ा देता
हिंदी, सामाजिक विज्ञान ( इतिहास ), PT और इंग्लिश के मास्टर के अलावा ना कोई अध्यापक वहाँ नियुक्त हुआ और ना ही कभी कोई अन्य मास्टर आये
उन पांच सालों में हमने सिर्फ उन्ही गिने चुने अध्यपको को देखा, बताता चलू एक दो बार गणित के प्राइवेट अध्यापक आये भी लेकिन वो टिक ना सके और उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया
प्रार्थना के बाद पहला पीरियड हमारा सामाजिक विज्ञान का होता, वो इसलिए क्यूंकि सामाजिक विज्ञान पढ़ाने वाले सर ही हमारे कक्षा अध्यापक थे, जो हमारी हाजरी लगाते और फिर पढ़ाते थे, वो अपने क्षेत्र में एक निपुण अध्यापक थे, या यूं कहे इतिहास के बारे में उन्हें बेहद ज्ञान था, सबसे ज्यादा मजे हम लोगो को नक्शा भरने में आता था
क्यूंकि इतिहास वाले सर हमें नक़्शे के बहाने स्कूल में बैठे बैठे ही सारी दुनिया कि सेर करा देते थे, और ज़ब कभी कभी वो गुस्सा होते तो एक आद कि धड पटक कर देते थे
उसके बाद अंग्रेजी का पीरियड होता, अंग्रेजी वाले अध्यापक भी अपने क्षेत्र में निपुण थे, वो कम पढ़ाते थे लेकिन समझाते बहुत थे, एक एक शब्द को बहुत बारीकी से समझाते थे वो सादगी पसंद आदमी थे, वो साइकिल का ही इस्तेमाल करते थे, भले ही उनके पास एक स्कूटर भी था, लेकिन फिर भी वो साइकिल से आते थे, वो सादा जीवन, उच्च विचार रखने में विश्वास करते थे
उसी के साथ साथ मेरे सबसे अच्छे अध्यापक हिंदी वाले अध्यापक जी थे, जो हमेशा मुझे ही खड़ा करते थे, किताब पढ़ाने के लिए लेकिन रमजान के दिनों में दुसरे बच्चों से पढ़वाते थे
वो जितनी हिंदी का ज्ञान रखते थे उससे कही ज्यादा उनकी गणित पर भी अच्छी पकड़ थी खास कर algebra पर उनके पास एक बड़ा सा बॉक्स था जिसमे लकड़ी के स्केल, ट्रायएंगल और भी अन्य टूल्स थे, जिनसे वो हमें algebra पढ़ाया करते थे, ज़ब कक्षा सात में उन्हें हमारा गणित का अध्यापक बनाया गया, हिंदी के साथ साथ
उसी के साथ साथ वहाँ दो आंटी भी थी, एक तो बहुत ही मोटी थी और दूसरी बहुत पतली, मोटी वाली आंटी बच्चों से बेहद प्यार करती थी और हमेशा मुस्कुराती रहती थी, जबकी पतली वाली आंटी का व्यवहार थोड़ा अच्छा नही था वो गुस्से में ही रहती थी
बस इन चंद पीरियड को अटेंड करने के बाद हम सब बच्चें आज़ाद हो जाते थे, फिर जिस अध्यापक का मन होता वो आते अन्यथा हम सब बच्चें फील्ड में खेलते कूदते
जाड़ों के दिनों में तो हम लोग हाईवे पर जाने वाले गंन्नो के ट्रक से गन्ने खींच लेते और फिर उन्हें फील्ड में बैठ कर खाते, अध्यापक आग के आगे बैठे हाथ सेंकते
उसी के साथ ज़ब सर्दी में स्कूल 10 से चार बजे तक का हो जाता तो आधे से ज्यादा बच्चें हाईस्कूल कि टूटी खिड़की से निकल कर भाग जाते, हम भी कभी कभी ऐसा करते, ज़ब हमारे दोस्त भी भाग जाते,4 बजते बजते बस गिने चुने बच्चें ही बचते स्कूल में, कभी कभी स्कूल प्रशासन थोड़ा सख्त हो जाता तो एक दो हफ्ते ये सिलसिला रुक जाता लेकिन फिर वही सब होने लगता
गन्ने खींच कर खाना, झर बेरी के बेर तोड़ने जाना और एक बार बरसात के दिनों में, स्कूल के पीछे पड़े मैदान में बनी एक पुरानी सी बिल्डिंग जो कि गिर गयी थी, कहा जाता था कि वहाँ कभी बच्चें पढ़ते थे
उसके गिरने के बाद उसमे लगा सरिया जिसे हम बच्चों ने तोड़ कर कबाड़ की दुकान पर बेच दिया था,
उसी के साथ हम और हमारे साथ के बच्चें राशन की दुकान पर सुबह में अपना राशन कार्ड जमा कर आते और फिर दोपहर में जाकर राशन ले आते, इस तरह का था वो हमारा स्कूल, ना कोई सख़्ती ना कुछ और, पढ़ाई भी ज्यादा नही क्यूंकि ज्यादातर बच्चें टूशन पढ़ते थे हम भी टूशन के माध्यम से ही हाईस्कूल तक पहुचे, सिर्फ स्कूल के भरोसे होते तो काला अक्षर भैंस बराबर होते क्यूंकि जैसा वहाँ का माहौल था
एक बार वहाँ स्काउट का कैंप भी लगा था उसी के साथ हमने एक लेख प्रतियोगिता में भी भाग लिया था जिसमे हमें ईनाम के तोर पर पांच हज़ार रूपये मिले थे
एक चीज और जनरल में आने की वजह से हम हमेशा छात्र वृत्ती से वांछित रहे, जहाँ क्लास के सब बच्चों का नाम लिस्ट में होता वही हम और हमारे अन्य साथी जो जनरल में आते थे, सिर्फ मुँह देखते रह जाते थे, इस बात का अफ़सोस हमें हमेशा रहा
ना जाने कब कक्षा 6 से निकल कर कक्षा 10 में आ गए और फिर परीक्षा पास कर उस स्कूल को विदा करने का समय आ गया
बताता चलू वो स्कूल जो पहले तो हमारे दाखिले के बाद कई साल तक हाईस्कूल तक मान्यता प्राप्त रहा लेकिन बाद में उसे इंटरमीडिएट की मान्यता मिल गयी थी, हम उसे छोड़ना नही चाहते थे, हमारा इरादा वहाँ से बारहवीं करके निकालने का ही था, लेकिन इतने सालों में भी उसमे सिवाय चंद अध्यापकों के कोई अन्य अध्यापक नही दिखा और जो अध्यापक थे भी वो धीरे सेवानिवृत हो रहे थे
पहला कारण तो यही था और दूसरा ये की उसमे सिर्फ बायो और आर्ट्स ही थी 11 वी और बारहवीं में, जबकी हमें गणित से बारहवीं करना थी
जिसके चलते हमें वो स्कूल छोड़ना पड़ा, क्यूंकि हाईस्कूल तक का सफऱ तो कट गया था मौज मस्ती करते करते, लेकिन अब हम ऊँचे पायदान की और बढ़ रहे थे, हमारा कम्पटीशन बढ़ने वाला था, अब हमारा सामना विज्ञान की तीन शाखाओ भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान से होने वाला था, जीव विज्ञानं हमारे पास नही था, उसके बदले में हमारा सामना गणित के सवालों से होने वाला था
5 साल उस स्कूल में गुज़ारने के बाद अब समय था उसे अलविदा कहने का, आँखे नम थी, दिल बहुत तेज धड़क रहा था, ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हम स्कूल को नही बल्कि स्कूल हमें छोड़ रहा था, और कोई हमारा अपना हमसे बहुत दूर जा रहा है जिसे चाह कर भी हम वापस नही ला सकते
आज भी वो स्कूल हमारे सपने में आकर, उन यादों को ताज़ा कर जाता है, और आँख नम हो जाती है, उस स्कूल से छात्रवृति तो नही मिली लेकिन इतने साल उस स्कूल में पढ़ने के बाद एक प्रकार की धनराशि अवश्य मिली जिसे संचाईका कहा जाता है, जो की हर महीने दी जाने वाली फीस का कुछ हिस्सा होता है जो स्कूल छोड़ने पर मिल जाता है
सच में कितना कुछ नही दिया उस स्कूल ने हमें, विद्या दी, यादें दी, अपने अपने क्षेत्र में निपुण अध्यापकों से ज्ञान हासिल करने का मौका दिया, और भी ना जाने क्या कुछ नही दिया और सिखाया उस स्कूल ने
आज भी ज़ब कभी उस स्कूल से गुज़र होता है तो ऐसा लगता है, मानो आज भी वही दोस्त और हम उस स्कूल में कही ना कही मस्ती कर रहे है, सारा का सारा सुनेहरा दौर एक चलचित्र की भांति चलने लगता है, आज भी आँखे नम हो गयी कभी सोचा नही था की उन यादों को कभी लफ्ज़ो में पिरोने का मौका मिलेगा, लेकिन लेखनी के माध्यम से ये मुमकिन हो पाया
बस इतना ही कहूँगा, कि अगर एक बार मौका मिले जिंदगी को दोबारा जीने का तो मैं वही स्कूल और वही स्कूल वाले दिन मांग लूँगा खुदा से
11वी और बारहवीं का सफर हमने किस स्कूल में तय किया था और वो स्कूल इस स्कूल कि तुलना में केसा था ये सब बताएँगे अगले संस्मरण में ज़ब तक के लिए अलविदा
स्कूल / कॉलेज के सुनहरे दिन
Radhika
09-Mar-2023 01:39 PM
Nice
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प्रत्यंगा माहेश्वरी
03-Feb-2023 04:32 AM
👌👌👌👌
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Rajeev kumar jha
31-Jan-2023 12:30 PM
Nice
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